झगड़ा
मैंने कुछ कहा जो तुमने सुना नहीं
तुमने कुछ कहा और मैंने गौर किया नहीं
कहा सुनी हम दोनों मे बेहद हो गयी
हमारे प्यार की भी पहली बेहस हो गई
यूँ गुस्से मे हम दोनों ने
अपने रास्ते बांट लिए
प्यार को किनारा कर
ज़िद के सहारे चल दिए
तुमने घर जाने का फैसला किया
मैंने वही रुकने का फैसला किया,
तुम गुस्से में चली गई और
मैं ज़िद मे वही खड़ा रहा |
घर आकार तुम्हें ये एहसास हुआ,
ज़हा प्यार है वहा झगड़ा कैसा ?
गुस्से मे कहे अपने लफ़्ज़ों के लिए,
तुम खुद को कोसने लगी,
मुझे कितना बुरा लगा होगा,
ये सोच सोच कर रोने लगी |
पछतावे मे तुमने मुझसे माफी मांग ली,
लाख कोशिशें की तुमने मुझे मनाने की,
पर तब तक बड़ी देर हो चुकी थी,
तुम्हारी कही हर बात मेरे ज़हन में बैठ गई थी |
मैं अपनी ज़िद मे रात भर
उसी बस स्टैंड पर ही रुक गया,
सर्दी की उस रात मे
तुम्हारे लौट आने का इंतजार किया |
मेरी फिक्र ने तुम्हें जगाए रखा
तुम्हारे इंतज़ार ने मुझे सोने न दिया,
कुछ शिकयत तुम्हे हुई तो
कुछ दर्द मैंने महसूस किया |
हाल दोनों का एक ही जैसा रहा,
कोई अंदर तड़पता रहा,
तो कोई बाहर तड़पता रहा |
दोनों एक दूसरे के दर्द का
हिसाब कर रहे थे
'झगड़ा किया ही क्यूँ'
ये खुद से सवाल कर रहे थे
No comments:
Post a Comment